Friday 14 August 2015

गौर हरी दास्तान- द फ्रीडम फ़ाइल: अच्छे-बुरे से परे, एक बेहद जरूरी फिल्म! [3/5]

कुछ कहानियों का कहा जाना ज्यादा जरूरी है, भले ही उनमें नाटकीयता की कमी साफ़ झलकती हो या फिर जिनमें जटिलता बिलकुल ही न के बराबर हो. अनंत नारायण महादेवन की ‘गौर हरी दास्तान’ ऐसी ही चुनिन्दा फिल्मों में से एक है जो अच्छे-बुरे से परे, एक बेहद जरूरी फिल्म है.  

आजादी के ६८ साल पूरे हो गए हैं, और इसमें तनिक संदेह नहीं कि आज हम इस आजादी का मोल आंकने में अक्सर चूक जाते हैं. फिल्म के शुरूआत में ही जब नायक [८० साल का एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी] एक सरकारी दफ्तर की धीमी लिफ्ट पे टिप्पणी करता है, “हम बहुत देर से नीचे नहीं जा रहे?”, सरकारी अफसर समझाता है, “अँधेरे में अक्सर दूरी ज्यादा लगती है”. देश की रुकी-रेंगती ढुलमुल व्यवस्था पर इससे अच्छा कटाक्ष नहीं हो सकता. वही अफसर अगले दृश्य में सहमते-झिझकते कह ही बैठता है, “कभी-कभी लगता है अंग्रेजों को वापस भेज के कहीं कोई गलती...”.

सत्य घटना पर आधारित ‘गौर हरी दास्तान’ एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के संघर्ष की कहानी है, जो अपने वजूद को साबित करने के लिए ३० साल से देश की लचर दफ्तरशाही से एक खामोश लड़ाई लड़ रहा है. बिना रुके, बिना थके. देश की आजादी की लड़ाई में अपनी भागेदारी साबित करने के लिए जिसे आज एक अदद सरकारी प्रमाणपत्र की दरकार है, पर सच की पहचान इतनी आसान कहाँ रही है? बचपन में ‘वानर सेना’ का सदस्य बनकर गुप्त सूचनाएं इधर-उधर पहुँचाने का काम कर चुके गौर हरी दास आज खुद एक दफ्तर से दुसरे दफ्तर चक्कर काट रहे हैं, और इज्जत करना तो छोडिये लोगों में हमदर्दी का रत्ती भर भी एहसास नहीं दिखता. क्या हो गया है हमारी संवेदनाओं को? कहाँ खर्च हो गयी हैं हमारे सामाजिक, मानवीय सरोकार की समझ?

फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है इसकी सच्चाई और भोलापन, जो न सिर्फ गौर हरी दास के चरित्र में दिखता है बल्कि फिल्म की कहानी का भी अभिन्न हिस्सा है. एक-दो दृश्यों को छोड़ दें [एक में गौर हरी दास गांधीजी से बात करते दिखाई देते हैं], तो फिल्म में बेवजह का ड्रामा ठूंसने की प्रवृत्ति से अनंत बखूबी बचते नज़र आये हैं. फिल्म का सबसे कमज़ोर पहलू भी दर्शकों के लिए शायद यही बने. फिल्म एक सधी, पर धीमी गति से आगे बढती है. बिलकुल साधारण से दिखने वाले दास की इस संघर्ष-गाथा में अटूट हौसले का रंग तो गहरा गाढ़ा है, पर इसे एक असाधारण प्रसंग बनाने में विश्वास की कमी साफ़ नज़र आती है.

मुख्य भूमिका में विनय पाठक कुछ ज्यादा ही कोशिश करते नज़र आते हैं. उनका हद से ज्यादा सीधा-सादा-सच्चा होना दिल को छूते-छूते रह जाता है. हालाँकि इस भूमिका को आत्मसात करने में पाठक कोई कसर नहीं छोड़ते. कोंकना सेन शर्मा ज्यादा देर परदे पर नहीं रहतीं, पर पूरी तरह प्रभावित करती हैं. दो टूक तीखे बोल बोलने वाले पत्रकार की भूमिका में रणवीर शौरी जमे हैं. तनिष्ठा चटर्जी एक आज़ाद ख्याल मॉडर्न पत्रकार के किरदार में अपनी दूसरी फिल्मों से अलग ही दिखती हैं. फिल्म के हर हिस्से में आपको छोटी-छोटी भूमिकाओं में ढेर सारे नामचीन कलाकार दिखेंगे, जैसे रजित कपूर, सौरभ शुक्ला, अचिंत कौर, मुरली शर्मा, मोहन कपूर और भरत दाभोलकर.

अंत में, अनंत महादेवन की ‘गौर हरी दास्तान’ आज के भारत में आजादी के मायने भूलती पीढ़ियों के लिए एक ऐसी फिल्म है जो न सिर्फ देश की चरमराती, सोई-सुन्न व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है, बल्कि एक ८५ साल के बूढ़े आम आदमी की अपने अस्तित्व को बचाए रखने की सतत कोशिश के साथ उम्मीद का एक सूरज भी जलता छोड़ जाती है.      

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