Friday 4 March 2016

जय गंगाजल: प्रकाश झा का अभिनय...बस कुछ और नहीं! [2/5]

एक तेज तर्रार पुलिस अधिकारी की रोबदार भूमिका में प्रियंका चोपड़ा भले ही फिल्म के पोस्टरों में सबसे बड़ा चेहरा नज़र आतीं हों, भले ही उनका किरदार फिल्म को उसके गंतव्य तक पहुंचाने में एक बड़ा और जरूरी माध्यम साबित होता हो; प्रकाश झा की ‘जय गंगाजल’ में अगर कोई आपको बार-बार दर्शक के तौर पर टटोलता रहता है, उकसाता है, आपके अंतर्मन को झकझोर जाता है तो वो हैं खुद प्रकाश झा! और यहाँ बात उनके निर्देशन की नहीं, उनके अभिनय की भी नहीं, उनके किरदार की हो रही है. झा भ्रष्टाचार में लिप्त एक ऐसे पुलिस अफसर की भूमिका में हैं, जिसने हालात से समझौते तो कर लिए हैं पर अभी भी अन्दर से पूरी तरह मरा नहीं है. अपने इस एक किरदार से प्रकाश झा फिल्म में वो तमाम उतार-चढ़ाव परोस पाने में सफल रहते हैं, जिनके सहारे फिल्म धीरे-धीरे ही सही, एक संतोषजनक प्रयास बनने की तरफ हमेशा उत्सुक और अग्रसर दिखाई देती है.

‘गंगाजल’ की ही तरह, ‘जय गंगाजल’ की पृष्ठभूमि भी जंगल-राज से ग्रस्त एक ऐसा इलाका है, जहां राजनीति बाहुबलियों के हाथों का मोहरा है और कानून-तंत्र पूरी तरह ध्वस्त. विकास के नाम पर गरीबों की जमीनें तरह-तरह के हथकंडों से हथियाई जा रही हैं, किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, और इन सबके पीछे हैं स्थानीय दबंग विधायक बबलू पाण्डेय [मानव कौल] और ‘छोटे विधायक’ कहलाने वाले उनके छोटे भाई डबलू पाण्डेय [निनाद कामत]. बी एन सिंह [झा] हर जायज़-नाजायज़ तरीके से इन दोनों को हमेशा कानून से गिरफ्त बचाते आये हैं, पर अब जिले का चार्ज ले लिया है नई एस पी आभा माथुर [प्रियंका चोपड़ा] ने. निडर, साहसी और निर्भीक माथुर पहले ही साफ़ कर चुकी हैं, “मैं यहाँ सलामी ठुकवाने नहीं आई’.

कहानी अलग और नई होने के बावजूद, ‘जय गंगाजल’ कई मायनों में ‘गंगाजल’ का सीक्वल ही लगती है. पुलिस महकमे में भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या अपराधियों के बढ़ते रसूख और आतंक को ख़त्म करने के लिए पुलिस का भीड़ के साथ मिलकर एक अलग, पर गैरकानूनी तरीके का इस्तेमाल करने लग जाने की प्रवृत्ति, दोनों ही फिल्में समान रूप से एक ही पैटर्न के पीछे भागती रहती हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि ‘गंगाजल’ में अपराधियों की आँखों में एसिड डालने की घटना भागलपुर की वास्तविक घटना से प्रेरित थी और यहाँ [Spoiler Alert] भीड़ का अपराधियों को खुद सज़ा देने का उन्माद महज़ एक लोक-लुभावन अभिव्यक्ति!

फिल्म के मुख्य किरदार में प्रियंका चोपड़ा भारी-भरकम संवादों, कड़क हाव-भाव और अपने तीखे तेवरों से लगातार प्रभावित करने की कोशिश करती रहती हैं, पर कहीं न कहीं एक बनावटीपन, किरदार में दिखने-लगने की एक जरूरत से ज्यादा ललक उनके अभिनय में और खालीपन ले आती है. उनके हिस्से के संवादों में बेवजह के वजन ठूंसे गए लगते हैं. प्रकाश झा के अभिनय में इस तरह की कोई रोक-टोक नहीं दिखती, हालाँकि कहीं –कहीं उनकी संवाद-अदायगी नाना पाटेकर की याद जरूर दिला देती है. अभिनय में झा की झिझक और चढ़ी-चढ़ी आँखों में रुक-रुक कर आते भाव उनके किरदार को और विश्वासी-और जमीनी ही बनाते हैं. मानव कौल सहज हैं और कुछेक दृश्यों में एकदम खुल कर प्रभावित करते हैं. राहुल भट और निनाद कामत ज्यादा निराश नहीं करते.

अंत में, ‘जय गंगाजल’ अपनी २ घंटे ३८ मिनट की ‘थका देने वाली’ कुल अवधि में आपको ज्यादातर समय वही सब दिखाती है, और ठीक उसी तौर-तरीके से, जिसे अक्सर आप प्रकाश झा की पिछली फिल्मों में पहले ही देख चुके हैं. झा का अभिनय जरूर एक नयापन देता है फिल्म को, पर उनका निर्देशन और फिल्म का लेखन औसत दर्जे का ही है. कहीं झा दूसरे ‘मधुर भंडारकर’ बनने की राह पर तो नहीं? [2/5]           

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