Saturday 18 June 2016

धनक: मासूम, मजेदार, मनोरंजक!! [3.5/5]

एक सच की दुनिया है जो हमारे आस-पास चारों तरफ पसरी है, और एक दुनिया है जैसी हम अपने लिये तलाशते हैं, जिसके होने में हम यकीन करना चाहते हैं. अपने देश के साथ भी ऐसा ही कुछ कनेक्शन है हमारा. एक, जैसी हम देखना चाहते हैं, मानना चाहते हैं और दूसरा जो वाकई में है. नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ हमारी परिकल्पना और सच्चाई की इन्हीं दो दुनियाओं के बीचोंबीच कहीं बसी है. अगर आप अच्छे हैं, दिल के सच्चे हैं तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है? परीकथाओं में अक्सर इस तरह के मनोबल बढ़ाने और नेकी की राह पर चलते रहने के लिए हिम्मत बंधाने वाली उक्तियाँ आपने भी पढ़ी या सुनी होंगी. ‘धनक’ किसी एक प्यारी और मजेदार परी-कथा जैसी ही है, जिसमें बहुत सारे अच्छे लोग हैं और जो बुरे भी हैं वो सदियों पुराने, जाने-पहचाने जैसे हमेशा कोसते रहने वाली ‘डायन’ चाची और बच्चे उठाने वाला दुष्ट गिरोह.

बड़ी फिल्मों में अपनी बात का लोहा मनवाने के लिए कई तरह के हथकंडे आजमाए जाते हैं. अभिनय जगत के बड़े-बड़े नाम, पब्लिसिटी का ज़ोर-शोर, शानदार सेट्स की चकाचौंध और खूबसूरत विदेशी लोकेशन्स, पर ‘धनक’ जैसी छोटी फिल्मों के पास सिर्फ एक ही रामबाण होता है...बड़ी ही सादगी से कही गयी एक जादुई कहानी, जो दिल छू जाए! राजस्थान के एक छोटे से गाँव में छोटू [कृष छाबड़िया] अपनी बहन परी [हेतल गडा] और चाचा-चाची के साथ रहता है. छोटू देख नहीं सकता. एक बीमारी ने उसकी आँखें लील लीं. पर चार साल पहले उसने ‘दबंग’ देखी थी और आज तक सलमान ‘भाई’ का फैन है, जबकि उसकी बहन ‘सारुक खान’ को पसंद करती है. ‘नेत्रदान महादान’ के पोस्टर में शाहरुख़ खान को देख कर परी मान बैठी है कि उसके भाई की आँखें अब वो ही ला सकता है. ऐसे में, एक दिन खबर मिलती है शाहरुख़ खान जैसलमेर से कहीं शूटिंग कर रहा है. बस, परी छोटू को लेकर निकल पड़ती है उसकी आँखें दिलाने.

धनक’ एक ऐसी फिल्म है जो अपनी मासूमियत कभी खोने नहीं देती. रिश्तों में अपनापन, प्यार और मीठी तकरार का भरपूर लुत्फ़ आपको देती है. होशियार परी 2-3 साल से लगातार फ़ेल हो रही है, ताकि वो अपने छोटे भाई की क्लास में आ जाये. तालाब से पानी भरने जाती है तो छोटू को अपने साथ-साथ दुपट्टे से बांधे रखती है. छोटू हालाँकि बहुत चंट है. गलतियों के लिये डांट पड़ने पर बड़ी चालाकी से अपने अंधेपन की दुहाई देकर बच जाता है. और चटोर भी बहुत. बहरहाल, फिल्म ऐसे पलों से पटी पड़ी है, जहां छोटू का बडबोलापन और उसकी साफगोई आपको ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते हैं. मसलन, एक दृश्य में छोटू से उसका एक दोस्त शमशेर बड़ी संजीदगी से पूछता है, “तेरी बहन की शादी के बाद तू क्या करेगा?” “तो भी मैं उसके साथ ही रहूँगा, उसके आदमी को तकलीफ़ नहीं हुई तो?” शमशेर थोड़ा रुक कर कहता है, “मैं अगर उसका पति होता तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती” “तुझे पसंद है वो?” “सोणी है छोरी” “ठीक है, कल मैं रिश्ते की बात करता हूँ”, 8 साल का छोटू बेबाकी से बोल देता है.         

धनक’ की ख़ूबसूरती राजस्थान के रंग-रंगीले परिवेश और उससे भी रंगीन किरदारों में छुपी हुई है. तुनकमिजाज़, पर मासूमियत से भरे छोटू और पूरी शिद्दत से उसे चाहने, उसका ध्यान रखने वाली परी के अलावा इस फिल्म में आधा दर्जन से ज्यादा और अजब-अनोखे किरदार हैं जो आपका मनोरंजन करने के लिए हमेशा एक पैर पर खड़े रहते हैं. शाहरुख़ से अपनी दोस्ती जताने वाला छैल-छबीला [राजीव लक्ष्मण, ‘रोडीज़’ वाले], राजस्थानी लोकगायक [विजय मौर्या], हवा में स्टेयरिंग पकड़े ट्रक चलाने वाला पागल [सुरेश मेनन], शाहरुख़ के साथ अपनी सेल्फी के साथ गाँव वालों की सेल्फी खिंचाने के लिए पैसे उगाही करने वाला [निनाद कामत], गोल-चिकने पत्थरों से भविष्य बताने वाली जादूगरनी बुढ़िया [भारती अर्चेकर] और चमत्कारी माता के भेष में भक्तों को ठगती एक थिएटर आर्टिस्ट [विभा छिब्बर]. यकीन मानिए, इनमें से हर किरदार आपको गुदगुदाने में कामयाब साबित होता है.

अंत में, नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ बारिश में इन्द्रधनुष की तरह ही है. देखते ही दिल छोटे बच्चे जैसा खिल उठता है. कृष छाबड़िया और हेतल गडा का अभिनय आपको पूरी फिल्म में बांधे रखता है. ‘धनक’ शायद साल की सबसे मनोरंजक फिल्म है. सौ करोड़ की दौड़ में मनोरंजन के मायने अपने अपने मतलब से तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाली तमाम ‘फूहड़’ फिल्मों से आज़िज आ गए हों तो इस पते पर दरवाजा खटखटाइये, आप बिलकुल निराश नहीं होंगे! [3.5/5]     

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